Thursday, September 18, 2008

बुझती लौ

लिखाई टूट रही स्याही खत्म होने को है
बुझने वाले हैं दीप रौशनी अब खोने को है

वैसे कहने को तो ये सफर पुराना है
फ़िर भी लगता है जैसे हर कदम बेगाना है
डगमगाती हुई कश्ती, लहरती लौ की तरह
बरसती हर एक बूँद हमको डुबोने को है

डाली से टूटे क्या हम यूँ लिया हवाओं ने
तप के बरसी यूँ धूप ज्यों जले चिताओं में
कैसा खाना कहाँ पानी कि अब तो सूख चले
बची जो राख वो भी अब हवा में उड़ने को है

दिल को पानी से लिखा तो कहाँ रह पायेगा
की बन के भाप पल में आँखों से छुप जाएगा
कहाँ मिलेंगे रंग जिनसे तुमको दिल ये कहूँ
लिखाई टूट रही स्याही खत्म होने को है

Wednesday, September 17, 2008

बरसते हम भी थे , रह रह ख्याल आता है
मेरे बरसने से ही दुनिया में रंग आता है
मगर कुछ बदल गई दुनिया की रंगत ऐसी
अब मेरा छूना भी उन्हें चोट सा लग जाता है